Gunjan Kamal

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जिसकी लाठी उसकी भैंस

अखिलेश मिश्रा, मेरा परिवार और वीरेंद्र सिन्हा एवं उनका परिवार रामनगर काॅलोनी में विगत पच्चीस वर्षों से रहे थे। सिन्हा जी जब  हमारे पड़ोस में रहने आये थे उस वक्त मेरा भी वहां पर मकान नया नया ही बना था‌। मुश्किल से पांच महीने ही हुए थे। पच्चीस वर्षों से सुख - दुख के साथी थे हम दोनों। महानगरों में देखा था मैंने वहां पर लोग अपने  पड़ोसी तक  को नहीं जानते लेकिन रामनगर जैसे छोटे शहर के  मध्यवर्गीय परिवारों में आज भी लोगों को एक -  दूसरे से मतलब है और  एक दूसरे के दुःख - सुख को वें आपस में  साझा करते हैं और  नहीं भी  कर पाते तो किसी-न- किसी तरह साझा हो ही जाते हैं।


मैं फौज से रिटायर होकर पेंशन पर एक अच्छी - खासी जिंदगी जी रहा था। पत्नी भी साथ ही थी। वैसे किस घर में पति - पत्नी में छोटे-मोटे झगड़े होते नहीं। हमारे बीच भी होते थे लेकिन कभी भी हमने उन्हें अहम का मुद्दा नहीं बनने दिया। अगर कोई एक गलती करता तो दूसरा माफी मांग लेता इस तरह हमारी जीवन नैया  ईश्वर की कृपा से ठीक - ठाक ही चल रही थी। बेटे और पोते - पोतियो की कमी तो समय - समय पर खलती थी लेकिन बेटे की अपनी  नौकरी थी, अपने रहन-सहन थे जिसमें मैंने कभी दखल देना उचित नहीं समझा। वों अकेला दूसरे शहर में  कैसे रहता? यही सोच कर शादी से पहले ही यह तय कर दिया था कि शादी होते ही बहू को उसके साथ ही भेज दिया जाएगा और ऐसा हम दोनों पति - पत्नी ने जब समय आया किया भी।


हां तो मैं सिन्हा जी की बात कर रहा था। मेरे और सिन्हा जी की उम्र में ज्यादा फासला ना होने की वजह से हम दोनों में पहले दिन से ही अच्छी - खासी दोस्ती हो गई थी। वह स्वभाव के बहुत अच्छे थे। हमेशा ही शांत रहते। हर किसी आनेवाले से अच्छे से बात करते लेकिन यह सब उनकी पत्नी विमला देवी जिसे मैं भाभी कहकर बुलाया करता था को फूटी ऑंख  नहीं सुहाता था। थोड़े क्रोधी स्वभाव के थी वें। बहुत जल्दी गुस्सा आ जाता था उन्हें। सिन्हा जी की उस दिन खैर नहीं होती थी जब किसी छोटी जात वाले को सामने कुर्सी पर  बैठा कर वें उसके हाथ का खैनी खा लेते या उसे अपने हाथ से खैनी खाने को  दें देते। भाभी जी सदियों से चली आ रही रूढ़िवादी विचारधारा के बोझ तले दबी थी या यूं कह सकते हैं कि उनके  रग- रग में इस प्रकार की विचारधाराएं खून की भांति बहती थी जिसे वे वक्त - बेवक्त दिखाती भी थी।


देखा जाए तो जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत उन पर सटीक बैठती थी, वैसे वे खुद मर्यादा में रहे या ना रहे लेकिन सबको मर्यादा में रखने  की कोशिश अवश्य करती थी। अपनी बहू से भी उनकी कभी नहीं बनी। मनमुटाव हमेशा ही बना रहा। पढ़ी - लिखी और नौकरीपेशा बहू को जब वह अपने मोहल्ले में घूंघट डाल कर जाने को कहती तो उनकी बहू उनके और पति के डर से कुछ बोलती तो नहीं थी लेकिन उसके चेहरे के हाव-भाव यह जरूर बता देते थे कि सास की कही बातें उसे पसंद नहीं।


मर्यादा की बातें करने वाले यदि खुद मर्यादा में रहकर उदाहरण प्रस्तुत करें तो यह बात समझ में आती है लेकिन यदि वे खुद मर्यादा विहीन व्यवहार करते हो तो यह विचार मन में अवश्य आता है कि जब यह काम खुद नहीं कर सकते तो दूसरों को कहने का क्या औचित्य रह जाताहै? खैर.. उनका पारिवारिक मामला समझ कर मैंने इस पर चुप्पी साध ली थी लेकिन मुझे बुरा तब लगता था जब सिन्हा जी उनकी मर्यादा विहीन बातों का  शिकार हम सबके सामने होते थे।


शिक्षक थे सिन्हा जी तो उन्हें भी पेंशन मिलती ही थी। बड़े- बुजुर्ग ने सही कहा है कि अगर पैसे आ रहे हो तो उसे खर्च करने के रास्ते खुद- ब- खुद बन ही जाते हैं ऐसा ही उनके साथ भी हुआ था। उच्च रक्तचाप के साथ - साथ मधुमेह की बीमारी ने भी उनके शरीर को जीवन पर्यन्त अपना घर बना लिया था। "हर वक्त आपकी ही खिदमत करने में सारा दिन लग जाता है ऊपर से शरीर ऐसा भारी है कि खुद तो ठीक से चल नहीं पाते हैं इसलिए एक काम भी अपना कर नहीं पाते। सारा काम मुझे ही करना पड़ता है।"  इस तरह से रोज  ही ताने और उलाहना सुनते - सुनते सिन्हा जी के  मन को कई बार द्रवित होते मैंने देखा था। जब बर्दाश्त से बाहर हो जाता तो अपना दुखड़ा किसी के आसपास ना रहने पर मुझसे कहते।कहा जाता है कि आदमियों को ऑंसू बहाना नहीं चाहिए लेकिन मन के घाव जब गहन पीड़ा देने लगें तो ऑंसू टपटप गिरते ही है। मैं उनका हाथ पकड़कर  उन्हें दिलासा देता। 


  एक दिन सिन्हा जी ने नहाते जाते समय अपनी पत्नी को आवाज लगाई कि उन्हें तौलिया दे दें। बस फिर क्या था घर में बवाल मच गया। तैश में भाभी जी  बोलती ही जा रही थी। "जब सबकुछ हाथ में ही चाहिए तो एक नौकर रख लों। वह भी तो नही रखते, सबकुछ मेरे से ही चाहिए। नौकरानी बनाकर रख दिया है।" उसके बाद भी भाभी जी के मन में जो आया बोलती चली गई। कहते है  जब किसी की ज़ुबान बेलगाम हो जाती है तब वह मर्यादा के सारे बांध तोड़  जाती हैं। सिन्हा जी अपनी पत्नी की खरी खोटी सुनते रहे। आश्चर्य तो मुझे तब हुआ जब पत्नी की खरी-खोटी सुनने के बाद भी उन्होंने तोलिया के लिए अपना हाथ बढ़ाया जिसे देखकर भाभी जी ने अपने हाथ में लिया तौलिया उनके हाथ में नहीं थमा कर जमीन पर पटक दिया और पैर पटकती हुई गुस्से में अपने कमरे में चली गई। सिन्हा जी ने जमीन पर पड़ा तौलिया झुककर कंपकंपाते  हाथों से उठाया और बाथरूम में नहाने के लिए चलें गए। यह सब मैं दरवाजे से देख रहा था। सिन्हा जी से कुछ काम था तो मैं उनसे मिलने गया था लेकिन इस बात की जानकारी शायद सिन्हा जी और भाभी जी को नहीं हुई थी। होती तो शायद! दिखावे के लिए ही सही  लेकिन सिन्हा जी के साथ वों सब कुछ ना होता जो हुआ था।


एक ही वर्ष के भीतर सिन्हा जी का तो स्वर्गवास हो गया।
मेरा तो ये मानना है कि आज के समय में पैसा होना इस दुनिया में ताकतवर लोगों की निशानी है क्योंकि आज पैसे का इस्तेमाल किसी भी चीज के लिए किया जा सकता है, इसी वजह से तो  ताकतवर लोग अपने हर काम में सफल होते हैं। सिन्हा जी तो रहे नही इसलिए अब उनकी आधी पेंशन  भाभी जी को ही मिलने लगी थी। पहले भी जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत उस घर में चरितार्थ हो रही थी और अब तो पूरी तरह से भाभी जी अपनी ताकत का प्रदर्शन कर रही थी।


हमारे समाज में और भी ऐसे घर है जहां पर ऐसा होता आया है और अभी भी हो रहा है लेकिन मेरी तरह सब कुछ देखकर भी बहुत लोग इसलिए चुप रह जाते हैं क्योंकि उन्हें यह कहकर चुप करा दिया जाता है कि यह तो उनका पारिवारिक मसला है।


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                                                         धन्यवाद 🙏🏻🙏🏻


गुॅंजन कमल 💗💞💗


# मुहावरों की दुनिया 


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5 Comments

Mahendra Bhatt

19-Feb-2023 09:08 PM

बहुत खूब

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शानदार

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अदिति झा

17-Feb-2023 10:41 AM

Nice

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